दशम अध्याय – विभूति-योग
[ भगवान् की अन्तर्यामिता और लोकातीतता ]
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥ १॥
śrī bhagavānuvāca
bhūya ēva mahābāhō śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ.
yattē.haṅ prīyamāṇāya vakṣyāmi hitakāmyayā ৷৷ 10.1 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा : हे महाबाहु ! तुम मेरे परम वचन को एक बार फिर से सुनो | मैं तुम्हारे हित की कामना से यह सब बता रहा हूँ क्योंकि तुम मेरी बातों से प्रियमान हो रहे हो , प्रसन्न हो रहे रहे हो || १ ||
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥ २॥
na mē viduḥ suragaṇāḥ prabhavaṅ na maharṣayaḥ.
ahamādirhi dēvānāṅ maharṣīṇāṅ ca sarvaśaḥ ৷৷ 10.2 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : मेरे उद्गम को न देव गण जानते हैं , न महर्षि लोग ही जानते हैं , क्योंकि मैं तो देवगणों और महर्षि लोगों का भी सब प्रकार से आदि कारण हूँ || २ ||
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ३॥
yō māmajamanādiṅ ca vētti lōkamahēśvaram.
asammūḍhaḥ sa martyēṣu sarvapāpaiḥ pramucyatē ৷৷ 10.3 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : जो कोई मुझे ‘अज’ , ‘अनादि’ और लोकों का ‘महेश्वर’ जानता है , मनुष्यों में वह मोह-रहित है , और सब पापों से मुक्त हो जाता है || ३ ||
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ ४॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥ ५॥
buddhirjñānamasaṅmōhaḥ kṣamā satyaṅ damaḥ śamaḥ.
sukhaṅ duḥkhaṅ bhavō.bhāvō bhayaṅ cābhayamēva ca ৷৷ 10.4 ৷৷
ahiṅsā samatā tuṣṭistapō dānaṅ yaśō.yaśaḥ.
bhavanti bhāvā bhūtānāṅ matta ēva pṛthagvidhāḥ ৷৷ 10.5 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : ( वह ‘लोकों’ का ‘महेश्वर’ है , ‘लोक’ तो स्थूल भौतिक पदार्थ हैं , ‘व्यक्त’ हैं; इनका ही नहीं , वह सूक्ष्म, अभौतिक, भावात्मक , अव्यक्त भावों का — मानस-तत्त्वों का भी ‘महेश्वर’ है | ) बुद्धि, ज्ञान, असंमोह , क्षमा , सत्य , दम , शम , सुख, दुःख , भव, अभाव , भय, अभय , अहिंसा समता , संतोष, तप , दान, यश, अपयश — प्राणियों की ये सब भिन्न-भिन्न दशाएँ मुझ से ही उत्पन्न होती हैं || ४-५ ||
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥ ६॥
maharṣayaḥ sapta pūrvē catvārō manavastathā.
madbhāvā mānasā jātā yēṣāṅ lōka imāḥ prajāḥ ৷৷ 10.6 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : पुराने सात महर्षि और चार मनु मेरे मानस-भाव हैं, और उन्हीं से इस लोक में ये सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं || ६ ||
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥ ७॥
ētāṅ vibhūtiṅ yōgaṅ ca mama yō vētti tattvataḥ.
sō.vikampēna yōgēna yujyatē nātra saṅśayaḥ ৷৷ 10.7 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : जो-कोई मेरी इस ‘विभूति’ को और ‘योग-शक्ति’ को तत्व रूप में जान जाता है , वह अविचल योग से युक्त हो जाता है — इसमें कोई संशय नहीं है || ७ ||
[ भक्ति-योग तथा ज्ञान-योग ]
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥ ८॥
ahaṅ sarvasya prabhavō mattaḥ sarvaṅ pravartatē.
iti matvā bhajantē māṅ budhā bhāvasamanvitāḥ ৷৷ 10.8 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : मैं सब की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझ से ही साड़ी सृष्टि प्रवृत्त होती हैं — इस बात को जानकार बुद्धिमान लोग भावपूर्वक मुझे भजते हैं || ८ ||
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥ ९॥
maccittā madgataprāṇā bōdhayantaḥ parasparam.
kathayantaśca māṅ nityaṅ tuṣyanti ca ramanti ca ৷৷ 10.9 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : मुझ में चित्त लगाकर, मेरे प्रति अपने प्राणों को अर्पण करके, एक-दूसरे को उद्बुद्ध करते हुए, नित्य मेरा ही कीर्तन करते हुए वे संतोष से भरपूर तथा आनन्द में रमते रहते हैं || ९ ||
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥ १०॥
tēṣāṅ satatayuktānāṅ bhajatāṅ prītipūrvakam.
dadāmi buddhiyōgaṅ taṅ yēna māmupayānti tē ৷৷ 10.10 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : जो लोग इस प्रकार निरन्तर प्रेमपूर्वक मेरे भजन में लगे रहते हैं उन्हें मैं बुद्धि भी ऐसी प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मेरे पास ही पहुँच जाते हैं || १० ||
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ११॥
tēṣāmēvānukampārthamahamajñānajaṅ tamaḥ.
nāśayāmyātmabhāvasthō jñānadīpēna bhāsvatā ৷৷ 10.11 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : ( जो लोग निरन्तर मेरे भजन में लगे रहते हैं ) उन पर अनुकम्पा करने के लिए मैं उनके आत्मा के भाव अर्थात उनकी बुद्धि में, ह्रदय में स्थित हुआ-हुआ , ज्ञान रुपी प्रकाशमय दीपक से अज्ञान से उत्पन्न होने वाले अन्धकार को नष्ट कर देता हूँ || ११ ||
[ अर्जुन की भगवान् की विभूतियों को जानने की उत्कंठा ]
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२॥
arjuna uvāca
paraṅ brahma paraṅ dhāma pavitraṅ paramaṅ bhavān.
puruṣaṅ śāśvataṅ divyamādidēvamajaṅ vibhum ৷৷ 10.12 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : अर्जुन ने कहा — हे भगवन ! आप परब्रह्म हैं , परम पवित्र हैं, शाश्वत दिव्य पुरुष हैं , आदिदेव हैं , अज हैं, विभु हैं || १२ ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३॥
āhustvāmṛṣayaḥ sarvē dēvarṣirnāradastathā.
asitō dēvalō vyāsaḥ svayaṅ caiva bravīṣi mē ৷৷ 10.13 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : समस्त ऋषियों ने, देवर्षि नारद ने, असित ने, देवल ने, व्यास ने, और स्वयं आपने भी मुझे वैसा ही बताया है || १३ ||
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥ १४॥
sarvamētadṛtaṅ manyē yanmāṅ vadasi kēśava.
na hi tē bhagavan vyakitaṅ vidurdēvā na dānavāḥ ৷৷ 10.14 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे केशव ! जो-कुछ आप मुझे कह रहे हैं इस सबको मैं सत्य मानता हूँ ! भगवन ! आपके व्यक्तित्व को न देव जानते हैं , न दानव || १४ ||
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥ १५॥
svayamēvātmanā.tmānaṅ vēttha tvaṅ puruṣōttama.
bhūtabhāvana bhūtēśa dēvadēva jagatpatē ৷৷ 10.15 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे पुरुषोत्तम ! हे जड़-चेतन के उत्पन्न करने हारे ( भूत-भावन ) , हे जड़-चेतन के स्वामी ( भूतेश ) , हे देवों के देव , हे जगत के स्वामी , आप स्वयं ही अपने द्वारा अपने-आपको जानते हैं || १५ ||
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥ १६॥
vaktumarhasyaśēṣēṇa divyā hyātmavibhūtayaḥ.
yābhirvibhūtibhirlōkānimāṅstvaṅ vyāpya tiṣṭhasi ৷৷ 10.16 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : आप अपनी उन सब दिव्य विभूतियों को जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके ठहराये हुए हैं , मुझे बतायेँ || १६ ||
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥ १७॥
kathaṅ vidyāmahaṅ yōgiṅstvāṅ sadā paricintayan.
kēṣu kēṣu ca bhāvēṣu cintyō.si bhagavanmayā ৷৷ 10.17 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे योगिन ! आपका सदा चिन्तन करते हुए मैं आपको कैसे पहचान सकता हूँ ? हे भगवन ! किन-किन विविध रूपों में आपका चिन्तन करना चाहिये || १७ ||
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८॥
vistarēṇātmanō yōgaṅ vibhūtiṅ ca janārdana.
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi śrṛṇvatō nāsti mē.mṛtam ৷৷ 10.18 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे जनार्दन ! आप अपनी ‘योग-शक्ति’ और विभूति’ का फिर से विस्तारपूर्वक कथन करें क्योंकि आपके अमृत-तुल्य वचनों को सुनकर मेरी तृप्ति ही नहीं हो रही || १८ ||
[ भगवान् की विभूतियाँ ]
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥ १९॥
śrī bhagavānuvāca
hanta tē kathayiṣyāmi divyā hyātmavibhūtayaḥ.
prādhānyataḥ kuruśrēṣṭha nāstyantō vistarasya mē ৷৷ 10.19 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा — हे कुरु-कुल में श्रेष्ठ अर्जुन ! बहुत अच्छा , मैं अब तुम्हे अपनी दिव्य विभूतियाँ को रूप बतलाऊंगा , परन्तु यह वर्णन केवल प्रधान विभूतियों का होगा क्योंकि मेरे विस्तार का तो कहीं अन्त नहीं है || १९ ||
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥ २१॥
ādityānāmahaṅ viṣṇurjyōtiṣāṅ raviraṅśumān.
marīcirmarutāmasmi nakṣatrāṇāmahaṅ śaśī ৷৷ 10.21৷৷
हिन्दी में भावार्थ : आदित्यों में विष्णु मैं हूँ , ज्योतियों में दमकता हुआ सूर्य मैं हूँ , मरुद-गैन में मरीचि मैं हूँ , नक्षत्रों में चन्द्रमा मैं हूँ || २१ ||
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥ २२॥
vēdānāṅ sāmavēdō.smi dēvānāmasmi vāsavaḥ.
indriyāṇāṅ manaścāsmi bhūtānāmasmi cētanā ৷৷ 10.22 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : वेदों में सामवेद मैं हूँ , देवों में इन्द्र मैं हूँ , इन्द्रियों में मन मैं हूँ और प्राणियों में चेतना मैं हूँ || २२ ||
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥ २३॥
rudrāṇāṅ śaṅkaraścāsmi vittēśō yakṣarakṣasām.
vasūnāṅ pāvakaścāsmi mēruḥ śikhariṇāmaham ৷৷ 10.23 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : रुद्रों में शंकर मैं हूँ , यक्ष और राक्षसों में कुवेर मैं हूँ , वसुओं में अग्नि मैं हूँ , पर्वतों में मेरु मैं हूँ || २३ ||
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥ २४॥
purōdhasāṅ ca mukhyaṅ māṅ viddhi pārtha bṛhaspatim.
sēnānīnāmahaṅ skandaḥ sarasāmasmi sāgaraḥ ৷৷ 10.24 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे पार्थ ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति मुझे समझो ! सेना-नायकों में स्कन्द ( कार्तिकेय ) मैं हूँ , जलाशयों में समुद्र मैं हूँ || २४ ||
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥ २५॥
maharṣīṇāṅ bhṛgurahaṅ girāmasmyēkamakṣaram.
yajñānāṅ japayajñō.smi sthāvarāṇāṅ himālayaḥ ৷৷ 10.25 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : महर्षियों में भृगु मैं हूँ , वाणी में ओंकार मैं हूँ , यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ , स्थावरों में हिमालय मैं हूँ || २५ ||
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥ २६॥
aśvatthaḥ sarvavṛkṣāṇāṅ dēvarṣīṇāṅ ca nāradaḥ.
gandharvāṇāṅ citrarathaḥ siddhānāṅ kapilō muniḥ ৷৷ 10.26 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : सब वृक्षों में पीपल मैं हूँ , देवर्षियों में नारद मैं हूँ , गंधर्वों में चित्ररथ मैं हूँ , सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ || २६ ||
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम् ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ २७ ॥
uccaiḥśravasamaśvānāṅ viddhi māmamṛtōdbhavam.
airāvataṅ gajēndrāṇāṅ narāṇāṅ ca narādhipam ৷৷ 10.27 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : घोड़ों में अमृत-मन्थन के समय निकला हुआ उच्चैःश्रवा मुझे समझो | मैं श्रेष्ठ हाथियों में इन्द्र का हाथी ऐरावत हूँ , मनुष्यों में मैं राजा हूँ || २७ ||
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ २८॥
āyudhānāmahaṅ vajraṅ dhēnūnāmasmi kāmadhuk.
prajanaścāsmi kandarpaḥ sarpāṇāmasmi vāsukiḥ ৷৷ 10.28 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : शास्त्रों में वज्र मैं हूँ , गायों में कामधेनु मैं हूँ , प्रजनन में कामदेव मैं हूँ , सर्पों में वासुकि मैं हूँ || २८ ||
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २९॥
anantaścāsmi nāgānāṅ varuṇō yādasāmaham.
pitṛṇāmaryamā cāsmi yamaḥ saṅyamatāmaham ৷৷ 10.29 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : नागों में शेषनाग मैं हूँ , जलचरों में वरुण मैं हूँ , पितरों में अर्यमा मैं हूँ और नियम तथा व्यवस्था द्वारा संयमन करने वालों में यम मैं हूँ || २९ ||
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥ ३०॥
prahlādaścāsmi daityānāṅ kālaḥ kalayatāmaham.
mṛgāṇāṅ ca mṛgēndrō.haṅ vainatēyaśca pakṣiṇām ৷৷ 10.30 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूँ, गणना करने वालों में काल मैं हूँ , पशुओं में सिंह मैं हूँ , पक्षियों में गरुण मैं हूँ || ३० ||
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी॥ ३१॥
pavanaḥ pavatāmasmi rāmaḥ śastrabhṛtāmaham.
jhaṣāṇāṅ makaraścāsmi srōtasāmasmi jāhnavī ৷৷ 10.31 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : पावन करने वालों में पवन मैं हूँ , शस्त्रधारियों में राम मैं हूँ , मच्छों में मगरमच्छ मैं हूँ , नदियों में गंगा मैं हूँ || ३१ ||
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥ ३२॥
sargāṇāmādirantaśca madhyaṅ caivāhamarjuna.
adhyātmavidyā vidyānāṅ vādaḥ pravadatāmaham ৷৷ 10.32 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे अर्जुन ! सृष्टिमात्र का आदि , अंत तथा मध्य भी मैं हूँ , विद्याओं में अध्यात्म-विद्या मैं हूँ , वाद-विवाद करने वालों का तर्क मैं हूँ || ३२ ||
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥ ३३॥
akṣarāṇāmakārō.smi dvandvaḥ sāmāsikasya ca.
ahamēvākṣayaḥ kālō dhātā.haṅ viśvatōmukhaḥ ৷৷ 10.33 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : अक्षरों में ‘अकार’ मैं हूँ, समासों में द्वंद्व-समास मैं हूँ , अविनाशी काल मैं ही हूँ , सब दिशाओं में मुखवाला सृष्टि का विधाता मैं हूँ || ३३ ||
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ ३४॥
mṛtyuḥ sarvaharaścāhamudbhavaśca bhaviṣyatām.
kīrtiḥ śrīrvākca nārīṇāṅ smṛtirmēdhā dhṛtiḥ kṣamā ৷৷ 10.34 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : सब को हरने वाली मृत्यु मैं हूँ , भविष्य में होने वालों की उत्पत्ति का कारण मैं हूँ , नारियों में कीर्ति, लक्ष्मी, वाणी, स्मृति, मेघा, घृति, क्षमा मैं ही हूँ || ३४ ||
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥ ३५॥
bṛhatsāma tathā sāmnāṅ gāyatrī chandasāmaham.
māsānāṅ mārgaśīrṣō.hamṛtūnāṅ kusumākaraḥ ৷৷ 10.35 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : साम-गीतों में वृहत-साम नाम का गीत मैं हूँ , छन्दों में गायत्री मैं हूँ , मासों में मार्गशीर्ष मैं हूँ , ऋतुओं में वसंत ऋतु मैं हूँ || ३५ ||
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥ ३६॥
dyūtaṅ chalayatāmasmi tējastējasvināmaham.
jayō.smi vyavasāyō.smi sattvaṅ sattvavatāmaham ৷৷ 10.36 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : छलियों में द्यूत मैं हूँ , तेजस्वियों का तेज मैं हूँ , जय मैं हूँ, प्रयत्न मैं हूँ , सात्त्विक भाव वालों का सत्त्व मैं हूँ || ३६ ||
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ३७॥
vṛṣṇīnāṅ vāsudēvō.smi pāṇḍavānāṅ dhanaṅjayaḥ.
munīnāmapyahaṅ vyāsaḥ kavīnāmuśanā kaviḥ ৷৷ 10.37 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : वृष्णि-कुल में वासुदेव मैं हूँ , पांडवों में धनञ्जय ( अर्जुन ) मैं हूँ , मुनियों में व्यास मैं हूँ , कवियों में उशना ( शुक्राचार्य ) कवि मैं हूँ || ३७ ||
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥ ३८॥
daṇḍō damayatāmasmi nītirasmi jigīṣatām. maunaṅ caivāsmi guhyānāṅ jñānaṅ jñānavatāmaham ৷৷ 10.38 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : दमन करने वाले शासकों का दण्ड मैं हूँ , जय चाहने वालों की निति मैं हूँ , रहस्य्पूर्ण वस्तुओं में मौन मैं हूँ, ज्ञानियों का ज्ञान मैं हूँ || ३८ ||
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ३९॥
yaccāpi sarvabhūtānāṅ bījaṅ tadahamarjuna. na tadasti vinā yatsyānmayā bhūtaṅ carācaram ৷৷ 10.39 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे अर्जुन ! सब प्राणियों की उत्पत्ति का जो भी बीज है , कारण है, वह मैं हूँ | जो भी चर तथा अचर है, जंगम तथा स्थावर है , इनमे से ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बिना रह सके || ३९ ||
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥ ४०॥
nāntō.sti mama divyānāṅ vibhūtīnāṅ paraṅtapa. ēṣa tūddēśataḥ prōktō vibhūtērvistarō mayā ৷৷ 10.40 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है | यह जो मैंने विभूतियों का विस्तार तुम्हे बतलाया है , यह केवल दिग्दर्शन करने के उद्देश्य से बतलाया है || ४० ||
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ४१॥
yadyadvibhūtimatsattvaṅ śrīmadūrjitamēva vā.
tattadēvāvagaccha tvaṅ mama tējōṅ.śasaṅbhavam ৷৷ 10.41 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : ( इस जगत में ) जो-जो वस्तु विभूति वाली है, श्री वाली है, ऊर्जा वाली अर्थात शक्ति वाली है , उस-उस को मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ समझो || ४१ ||
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ ४२॥
athavā bahunaitēna kiṅ jñātēna tavārjuna.
viṣṭabhyāhamidaṅ kṛtsnamēkāṅśēna sthitō jagat ৷৷ 10.42 ৷৷
हिन्दी में भावार्थ : अथवा , हे अर्जुन ! तुम्हे इस बहुत बड़े विस्तार को जानकार क्या करना है ? ( एक वाक्य में यह समझ लो ) कि अपने एक अंश मात्र से इस समूचे जगत को थामे मैं ठहरा हुआ हूँ || ४२ ||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः |